वास्ते हज़रत मुराद-ए- नेक नाम       इशक़ अपना दे मुझे रब्बुल इनाम      अपनी उलफ़त से अता कर सोज़ -ओ- साज़    अपने इरफ़ां के सिखा राज़ -ओ- नयाज़    फ़ज़ल-ए- रहमान फ़ज़ल तेरा हर घड़ी दरकार है फ़ज़ल-ए- रहमान फ़ज़ल तेरा हो तो बेड़ा पार है

 

 

हज़रत  मुहम्मद मुराद अली ख़ां रहमता अल्लाह अलैहि 

 

 

हज़रत-ए-शैख़ निज़ाम उद्दीन औलिया

रहमतुह अल्लाह अलैहि

 

सुलतान अलमशाइख़ हज़रत ख़्वाजा सय्यद निज़ाम उद्दीन औलिया महबूब अलहि रहमतुह अल्लाह अलैहि हिंदूस्तान के शहर बदाइयों में माह सिफ़र ६३४ हिज्री में पैदा हुए। । आप के वालिद बुजु़र्गवार हज़रत सय्यद अहमद बिन दानयाल गज़नी( अफ़्ग़ानिस्तान ) से हिंदूस्तान आए और शहर बदाइयों (भारत) में मुतवत्तिन हुए।पाँच बरस के थे कि वालिद माजिद ने इंतिक़ाल फ़रमाया। वालिदा मुहतरमा ने उन्हें एक मकतब में दाख़िल किराया।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

अठारह साल की उम्र में तालीमी इस्तिदाद का ये आलम था कि बदाइयों में उन्हें मज़ीद तालीम देने वाला कोई मुदर्रिस मौजूद नहीं था। आख़िर हज़रत अपनी वालिदा माजिदा को लेकर दिल्ली आए और हिलाल चिशतदार की मस्जिद के नीचे एक हुजरा में सुकूनत इख़तियार की।

हज़रत-ए-शैख़ निज़ाम उद्दीन औलिया रहमतुह अल्लाह अलैहि जामि उलूम ज़ाहिरी-ओ-बातिनी थे। आप का दिल अनवार मंज़िल हमेशा कुतुब मोतबरा तसव्वुफ़ के मुताला की तरफ़ माइल रहता था। आप तफ़सीर-ओ-हदीस , उसूल-ओ-कलाम और फ़िक़्ह इमाम अबूहनीफ़ा में असतख़सार तमाम रखते थे।उस वक़्त दिल्ली में एक बहुत बड़े आलिम ख़्वाजा शमस उद्दीन ख़ू अर्ज़ी रहमतुह अल्लाह अलैहि मौजूद थे जिन्हें बाद में सुलतान ग़ियास उद्दीन बलबन ने शमस उल-मलिक का ख़िताब देकर मंसब-ए-वज़ारत तफ़वीज़ किया। वज़ीर होने से पहले शमस उल-मलिक दरस-ओ-तदरीस में मशग़ूल रहते थे। हज़रत निज़ाम उद्दीन औलिया रहमतुह अल्लाह अलैहि उन से मिल कर उन के शागिर्दों की सिलक में मुंसलिक होगए । उन के पास एक हुजरा ख़ास मुताला के वास्ते था जिस में सिर्फ़ तीन शागिर्द ( जो इंतिहाई ज़हीन और साहब-ए-इस्तिदाद होते) सबक़ पढ़ते थे। बाक़ी सब शागिर्द हुजरा के बाहर सबक़ पढ़ते।हज़रत-ए-शैख़ निज़ाम उद्दीन के ज़माना तदरीस मैन इन तीन ख़ुशकिसमत शागिर्दों में से एक मिला क़ुतुब उद्दीन ना क़ुल्ला , दूसरे मिला बुरहान उद्दीन अबदुलबाक़ी , और तीसरे हज़रत-ए-शैख़ निज़ाम उद्दीन औलिया थे।

शमस उल-मलिक ख़्वाजा शमस उद्दीन ख़ू अर्ज़ी को जब हज़रत-ए-शैख़ निज़ाम उद्दीन औलिया की तेज़ी फ़हम और ज़हानत-ए-तिब्बी का अंदाज़ा हुआ तो वो सब शागिर्दों से ज़्यादा उन की ताज़ीम करने लगे। मौलाना शमस उद्दीन की आदत थी कि किसी रोज़ कोई शागिर्द मदरसे में ना आता तो अगले रोज़ इस से उज़रा-ए-दिल लगी फ़रमाते:मैंने क्या क़सूर किया था कि तो ग़ैर हाज़िर हुआ। मुझे बता, ताकि में फिर वही क़सूर करूं, लेकिन शेख़ निज़ाम उद्दीन औलिया जब किसी वजह से मदरसे में ना आते तो मौलाना शमस उद्दीन उन्हें याद करके ये शेअर पढ़ते।

बारी कम अज़ आंका गाह गाहे

आई -ओ-बमुह कन्नी निगह है

हज़रत निज़ाम उद्दीन औलिया ज़माना तदरीस में हज़रत-ए-शैख़ नजीब उद्दीन मुतवक्किल (बिरादर हज़रत-ए-शैख़ फ़रीद उद्दीन मसऊद गंज शुक्र) के हमसाया थे।जो बहुत से उल्मा दिल्ली पर फ़ौक़ियत रखते थे। हज़रत-ए-शैख़ निज़ाम उद्दीन औलिया अक्सर उन की सोहबत बाबरकत मैन बैठते और मुस्तफ़ीज़ होते।

शेख़ निज़ाम उद्दीन औलिया तदरीस से फ़ारिग़ होकर मरातिब-ए-आलीया पर फ़ाइज़ हुए तो उन्हें मआश की फ़िक्र हुई। एक रोज़ उन्हों ने दौरान-ए-गुफ़्तगु शेख़ नजीब उद्दीन मुतवक्किल से कहा कि मेरे लिए दाये ख़ैर फ़रमाएं कि में किसी मुक़ाम का क़ाज़ी मुक़र्रर हो जाउं और ख़ल्क़-ए-ख़ुदा को इंसाफ़ से राज़ी करूं। हज़रत-ए-शैख़ नजीब उद्दीन ये सन कर ख़ामोश होगए और कोई जवाब ना दिया। शेख़ निज़ाम उद्दीन औलिया को गुमान गुज़रा कि शायद शेख़ नजीब उद्दीन मुतवक्किल ने उन की बात नहीं सुनी। इस लिए दुबारा बाआवाज़-ए-बुलंद कहा : हज़रत ! दुआ फ़रमाईए कि में किसी मुक़ाम का क़ाज़ी बिन जाउं। इस मर्तबा शेख़ नजीब उद्दीन मुतवक्किल ने फ़रमाया : निज़ाम उद्दीन ! क़ाज़ी ना बनू , कुछ और बनू। फिर मश्वरा दिया कि मेरे भाई शेख़ फ़रीद उद्दीन मसऊद गंज शुक्र से मुलाक़ात करो।

उस रात शेख़ निज़ाम उद्दीन औलिया जामि मस्जिद दिल्ली में मुक़ीम थे । इत्तिफ़ाक़ से सुबह अज़ान से क़बल मोज़न ने मीनारा पर खड़े होकर ये आयत पढ़ी :

अलम यान ललज़ीन आमिनवा इन तख़श्शो क़लोभम लज़कर अल्लाह।

ये सुनते ही हज़रत का हाल मुतग़य्यर हुआ और नूर-ए-अलहि ने उन को घेर लिया।उस वक़्त शेख़ उल-आलम फ़रीद उद्दीन मसऊद गंज शुक्र की बुजु़र्गी और करामात का शहरा आलमगीर था। यूं भी शेख़ नजीब उद्दीन मुतवक्किल की मजालिस मैन ग़ायबाना हज़रत-ए-शैख़ उल-आलम की सीरत के औसाफ़ सन कर शेख़ निज़ाम उद्दीन औलिया उन की ज़यारत के पहले ही मुश्ताक़ थे। अब जो सुबह हुई तो बगै़र ज़ाद-ए-राह के पियादापा क़स्बा अज्जू धन (पाक पतन शरीफ़ ) की सिम्त रवाना होगए और पनजशनबा को ज़ुहर की नमाज़ के वक़्त हज़रत-ए-शैख़ उल-आलम की ज़यारत बासआदत से मुशर्रफ़ हुए। हज़रत-ए-शैख़ उल-आलम ने उन्हें देखते ही ये शेअर पढ़ा।

ए आतिश-ए-फ़राक़त जानहा ख़राब करदा

सेलाब अशतयाक़त दुल्हा कबाब करदा

शेख़ निज़ाम उद्दीन ने चाहा कि शेख़ उल-आलम से अपने दिल्ली इश्तियाक़-ओ-इख़लास का हाल बयान करें । लेकिन उन पर इस क़दर सहशत ग़ालिब हुई कि कुछ अर्ज़ ना करसके। हज़रत-ए-शैख़ उल-आलम ने उन की ये हालत मुशाहिदा करके फ़रमाया:

लकल दख़ील धशৃ।फिर बड़ी मुहब्बत से फ़रमाया : मर्हबा , ख़ुशआमदीद। अनशाइआलला उल-अज़ीज़ दीनी-ओ-दुनयवी नेअमतों से सरफ़राज़ होगे फिर शेख़ निज़ाम उद्दीन औलिया ने हज़रत-ए-शैख़ उल-आलम से ख़िरक़ा दरवेशी पाया और मुरीद एन-ए-ख़ास की सिलक में मुंतज़िम हुए।

इन दिनों हज़रत-ए-शैख़ उल-आलम गंज शुक्र निहायत तंगदस्ती में मुबतला थे आप के मुताल्लिक़ीन और फ़र्ज़ंद अक्सर फ़ाक़ा से वक़्त गुज़ारते इस के बावजूद ख़ानक़ाह फ़लक पाई गाह का कोई फ़र्द आर ज़रदा-ओ-दिलगीर ना था। हर एक के चेहरे पर सब्र-ओ-शुक्र की रौनक थी । मौलाना बदर उद्दीन इसहाक़ बुख़ारी कि जामि मनक़ूल-ओ-माक़ूल थे , लंगर ख़ाना के लिए जंगल से रोटियां लाते और मौलाना शेख़ जमाल उद्दीन हानसवी सहरा से डेले (जिस का लोग अमोमा अचार बनाते हैं) लाते और मौलाना हुसाम उद्दीन काबुली पानी लाते और लंगर ख़ाना की देगें धोते।और शेख़ निज़ाम उद्दीन औलिया-ए-अज़रूए सिदक़-ओ-सफ़ा खाना तैय्यार करते और इफ़तार के वक़्त शेख़ उल-आलम की मजलिस में दरवेशों के सामने पेश करते ।

एक दिन जब तमाम हाज़िरीन-ए-मजलिस अपने अपने मवाम पर बैठ गए और खाना सामने रखा गया तो हज़रत-ए-शैख़ उल-आलम ने लुक़मा उठा कर फ़रमाया । ये लुक़मा मेरे हाथ में गिरां मालूम होता है । ये कह कर लुक़मा कासी में रख दिया।

शेख़ निज़ाम उद्दीन औलिया-ए-फ़रमाते हैं कि शेख़ उल-आलम का ये कलाम सुनते ही मेरा बदन काँपने लगा । फ़ौरन ईस्तादा होकर निहायत अदब से अर्ज़ किया: ग़रीबनवाज़ : लकड़ियां और डेले और पानी मौलाना बदर उद्दीन , मौलाना हुसाम उद्दीन और शेख़ जमाल उद्दीन लाए हैं , शुबा का सबब मालूम नहीं ग़रीबनवाज़ पर सब हाल रोशन है।

शेख़ उल-आलम ने फ़रमाया: सालन में जो नमक डाला गया है वो कहाँ से आया है? शेख़ निज़ाम उद्दीन ने ये सुनते ही सरज़मीन पर रख कर अर्ज़ की: आज ख़ानक़ाह में कुछ मौजूद ना था , इस लिए देग़ में नमक क़र्ज़ लेकर डाला है।शेख़ उल-आलम ने इरशाद फ़रमाया : फ़िक़रा-ए-फ़ाक़ा से मर जाएं तो बेहतर है , लेकिन लज़्ज़त-ए-नफ़स की ख़ातिर उन्हें किसी से क़र्ज़ नहीं लेना चाहिए। क्यों कि क़र्ज़ और तवक्कुल के दरमयान बाद उल-मुशरक़ीन है कि अगर अदा ना हो तो इस का वबाल क़ियामत तक मक़रूज़ की गर्दन पर रहेगा। फिर फ़रमाया कि ये खाना दरवेशों के आगे से उठा कर मुहताजों में तक़सीम कर दिया जाये।

शेख़ निज़ाम उद्दीन औलिया-ए-रहमतुह अल्लाह अलैहि फ़रमाते हैं कि में कभी कुभार दूसरे लोगों की तरह ज़रूरत के वक़्त क़र्ज़ ले लिया करता था , लेकिन मैंने उस रोज़ पक्का इरादा किया कि आइन्दा कभी सख़्त ज़रूरत में भी क़र्ज़ ना लूंगा। हज़रत-ए-शैख़ उल-आलम ने वो कम्बल जिस पर वो तशरीफ़ फ़र्मा थे , मुझे इनायत फ़रमाया और दुआ फ़रमाई : ईल्लाहूल अलामीन ! आइन्दा निज़ाम उद्दीन को कभी क़र्ज़ का मुहताज ना करना।एक मुद्दत के बाद शेख़ निज़ाम उद्दीन औलिया-ए-रहमतुह अल्लाह अलैहि ख़िदमतगुज़ारी और इताअत शआरी से मर्तबा कमाल को पहुंचे तो शेख़ उल-आलम ने उन्हें ख़ल्क़-ए-ख़ुदा की हिदायत-ओ-तकमील की इजाज़त दे कर६५९ हिज्री को दिल्ली में रवाना फ़रमाया।

दिल्ली में शेख़ निज़ाम उद्दीन औलिया-ए-रहमतुह अल्लाह अलैहि ने ग़ियास पर में सुकूनत इख़तियार फ़रमाई । यहां दो शख़्स आप की ख़िदमत में हाज़िर रहते थे। एक शेख़ बुरहान उद्दीन ग़रीब (जो दौलत आबाद दक्कन में मदफ़ून हैं) और दूसरे शेख़ कमाल उद्दीन याक़ूब (जिन का मज़ार पट्टन गुजरात में वाक़्य है) ये दोनों बुज़ुर्ग दूसरे खल़िफ़ा-ए-से पहले ख़िरक़ा ख़िलाफ़त पाकर तहसील कमाल और रियाज़त नफ़स में मशग़ूल हुए। ग़ियास पर में शुरू शुरू में निहायत तंगी से गुज़र औक़ात होती थी । अक्सर ऐसा होता कि चार चार रोज़ तक खाने को ना होता। सुलतान अलमशाइख़ हज़रत निज़ाम उद्दीन औलिया-ए-और दीगर दरवेश पानी से रोज़ा इफ़तार करते। उन्ही दिनों एक सालहा औरत ने जो हज़रत से तोसल रखती थी और हमसाया में रहती थी। स्वत कात कर गंदुम ख़रीदी और कुछ आटा हज़रत सुलतान अलमशाइख़ की ख़िदमत में बतौर नज़राना भेजा।

हज़रत सुलतान अलमशाइख़ ने शेख़ कमाल उद्दीन याक़ूब से फ़रमाया कि इस आटे को देग़ में डाल कर पकाव शायद किसी आने वाले का हिस्सा है। शेख़ कमाल उद्दीन उस को पकाने में मशग़ूल थे कि अचानक एक दरवेश गुडरी पोश किसी मुक़ाम से वारिद होई और आते ही हज़रत सुलतान अलमशाइख़ से कहा : जो माहज़र है , इस से दरेग़ ना कर।हज़रत ने फ़रमाया: आप चंद लम्हे इस्तिराहत फ़रमाएं । अभी खाना तैय्यार होता है तो आप की ख़िदमत में पेश करता हूँ।दरवेश नेकहा: जैसा भी है , फ़ोरा ले आव।ये सन कर हज़रत उठे और दोनों हाथों से पकती हुई देग़ के किनारे पकड़ कर उन के सामने लाए। दरवेश ने देग़ उठा कर ज़मीन पर दे मारी और फ़रमाया: शेख़ फ़रीद उद्दीन गंज शुक्र ने नेअमत बातिनी शेख़ निज़ाम उद्दीन औलिया-ए-को अर्ज़ानी फ़रमाई और मैंने उन की ज़ाहिरी मुहताजी की देग़ को तोड़ डाला। ये कहा और सब की नज़रों से ओझल होगए।

इस के बाद तो ये हुआ कि हज़ारों लाखों आदमी हज़रत सुलतान अलमशाइख़ की ख़िदमत में हाज़िर होकर मुरीद हुए और ख़िरक़ा ख़िलाफ़त पा कर दर्जा आली और मुक़ाम मिताली पर फ़ाइज़ हुए।

ख़ैर अलमजालस में है कि एक दिन मौलाना हुसाम उद्दीन नुसरत ख़ानी और मौलाना जमाल उद्दीन नुसरत ख़ानी और मौलाना शरफ़ उद्दीन काशानी हज़रत-ए-शैख़ अलमशाइख़ के रूबरू बैठे थे। शेख़ ने उन की तरफ़ मुतवज्जा हो कर फ़रमाया कि अगर कोई शख़्स दिन को साइम और रात को क़ायम रहे तो ये काम निहायत सहल है कि बेवा औरतें भी ये काम करसकती हैं। लेकिन मशग़ूली हक़ कि मर्दान-ए-तलबगार उस की बदौलत बारगाह परवरदिगार में राह पाते हैं और मुशाहिदा ज़ात की दौलत से फ़ैज़याब होते हैं , वो उन इबादतों से मावरा-ए-है। हाज़िरीन-ए-मजलिस ने जब ये कलाम सुना तो ख़्याल किया कि शेख़ किसी ख़ुसूसी इबादत का ज़िक्र फ़रमाएंगे लेकिन हज़रत-ए-शैख़ अलमशाइख़ ने फ़रमाया: इंशाअल्लाह ताली में किसी मुनासिब-ए-वक़्त पर इस का तज़किरा करूंगा। अज़ीज़ों ने कई माह इस इंतिज़ार में गुज़ार दीए।

एक रोज़ ये सब हज़रात मजलिस में हाज़िर थे कि मुहम्मद काशिफ़ (जो सुलतान अलाव उद्दीन खिलजी के दीवान का दारोगा था) वारिद हुआ और हज़रत के सामने मुअद्दब बैठ गया। हज़रत ने पूछा : मुहम्मद काशिफ़! कहाँ थे?अर्ज़ की: ग़रीबनवाज़ ! दीवान आम में था। आज तो सुलतान अलावा लदेन खिलजी ने पच्चास हज़ार रुपय बंदगान-ए-ख़ुदा के वास्ते इनाम फ़रमाए हैं।ये सन कर हज़रत-ए-शैख़ ने मौलाना हुसाम उद्दीन नुसरत ख़ानी और दूसरे हाज़िरीन को मुतवज्जा होकर फ़रमाया:भला बताव , बादशाह का ये इनाम बेहतर है या अह्द का वफ़ा करना बेहतर है जो एक दफ़ा मैंने तुम्हारे साथ किया था?ये सन कर सब हाज़िरीन आदाब बजा लाए और अर्ज़ की: वफ़ाए अह्द हष बहिश्त से बेहतर है। पच्चास हज़ार नुक़रा की क्या हैसियत है!

सुलतान अलमशाइख़ ने तीनों बुज़ुर्गों को क़रीब बुलाया और बाक़ी हाज़िरीन को रुख़स्त करके इरशाद फ़रमाया: मक़सूद तक पहुंचने का रास्ता ख़लवत में मशग़ूली हक़ है । तालिब को चाहिए कि बे ज़रूरत बाहर ना आए और हमेशा बावुज़ू रहे , सिवाए वक़्त-ए-क़ैलूला के कि उस वक़्त ग़लबा ख़ाब होता है। हमेशा साइम अलदहर रहे , ये मुम्किन ना हो तो कम से कम ग़िज़ा पर क़नाअत करे और सिवाए ज़िक्र हक़ और शदीद ज़रूरत के कभी ज़बान ना खोले। अहल दुनिया से मुख़्तसर कलाम करे। मनक़ूल है कि ये तीनों मशाइख़ हज़रत-ए-शैख़ निज़ाम उद्दीन औलिया के अन्फ़ास की बरकत से इन सिफ़ात-ए-आलीया से मुत्तसिफ़ हुए और कामिल हो कर जुमला वासलीन से हुए।

मौलाना शहाब उद्दीन इमाम से मनक़ूल है कि हज़रत-ए-शैख़ निज़ाम उद्दीन औलिया-ए-एक रोज़ हज़रत ख़्वाजा क़ुतुब उद्दीन बुख़्तियार काकी रहमतुह अल्लाह अलैहि के मज़ार की ज़यारत के लिए तशरीफ़ ले गए। में और मौलाना बुरहान उद्दीन ग़रीब हमराह थे। हज़रत सुलतान अलमशाइख़ हज़रत ख़्वाजा क़ुतुब उद्दीन रहमतुह अल्लाह अलैहि की ज़यारत करके हौज़ शमसी के किनारे रौनक अफ़रोज़ हुए। वहां उस वक़्त ख़्वाजा हुस्न इला-ए-संजरी (कि सन इस का पच्चास बरस से ज़्यादा था ) यारों के साथ मै नोशी में मशग़ूल था। जब इस ने शेख़ को आते हुए देखा तो आप के सामने आकर ये दो शेअर पढ़े।

सालहा बाशद कि बाहम सहबतीम

ग़रज़ सहबतहा असर बोदी कजासत

ज़ुहद तां फ़िस्क़ अज़ दिल मा कम ना कुरद

फ़िस्क़ मा यां बेहतर अज़ ज़ुहद शमासत

हज़रत-ए-शैख़ ने ये अशआर सुने तो फ़रमाया :सोहबत में तासीर होती है। इंशाअल्लाह तुम्हें नसीब होगी।ये सुनना था कि ख़्वाजा हुस्न सर ब्रहना हज़रत के क़दमों में गिर पड़े और तमाम मनाही से ताअब हो कर रफ़क़ा समेत मुरीद हुए। बाद में ख़्वाजा हुस्न ने हज़रत के मलफ़ूज़ात पर मुश्तमिल किताब "फ़वाइद अलफ़वाद" तसनीफ़ की। जिस के बारे में हज़रत अमीर ख़ुसरो ने कहा कि काश मेरी तमाम तसानीफ़ ख़्वाजा हुस्न के नाम मंसूब होतीं और उन की किताब फ़वाइद अलफ़वाद मेरे नाम मंसूब होती।

आप १८ रबी उलअव्वल ७२५ हिज्री को इसदार फ़ानी से रुख़स्त हुए ।आप की आख़िरी आरामगाह दिल्ली में है